वांछित मन्त्र चुनें

यदि॑न्द्राग्नी पर॒मस्यां॑ पृथि॒व्यां म॑ध्य॒मस्या॑मव॒मस्या॑मु॒त स्थः। अत॒: परि॑ वृषणा॒वा हि या॒तमथा॒ सोम॑स्य पिबतं सु॒तस्य॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yad indrāgnī paramasyām pṛthivyām madhyamasyām avamasyām uta sthaḥ | ataḥ pari vṛṣaṇāv ā hi yātam athā somasya pibataṁ sutasya ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यत्। इ॒न्द्रा॒ग्नी॒ इति॑। प॒र॒मस्या॑म्। पृ॒थि॒व्याम्। म॒ध्य॒मस्या॑म्। अ॒व॒मस्या॑म्। उ॒त। स्थः। अतः॑। परि॑। वृ॒ष॒णौ॒। आ। हि। या॒तम्। अथ॑। सोम॑स्य। पि॒ब॒त॒म्। सु॒तस्य॑ ॥ १.१०८.१०

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:108» मन्त्र:10 | अष्टक:1» अध्याय:7» वर्ग:27» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:16» मन्त्र:10


बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे कैसे हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - इस मन्त्र का अर्थ पिछले मन्त्र के समान जानना चाहिये ॥ १० ॥
भावार्थभाषाः - इन्द्र और अग्नि दो प्रकार के हैं। एक तो वे कि जो उत्तम गुण, कर्म, स्वभाव में स्थिर वा पवित्र भूमि में स्थिर हैं वे उत्तम और जो अपवित्र गुण, कर्म, स्वभाव में वा अपवित्र भूमि आदि पदार्थों में स्थिर होते हैं वे निकृष्ट, ये दोनों प्रकार के पवन और अग्नि ऊपर-नीचे सर्वत्र चलते हैं। इससे दोनों मन्त्रों से (अवम) और (परम) शब्द जो पहिले प्रयोग किये हुए हैं, उनसे दो प्रकार के (इन्द्र) और (अग्नि) के अर्थ को समझाया है, ऐसा जानना चाहिये ॥ १० ॥
बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते ।

अन्वय:

अन्वयोऽपि पूर्ववद्विज्ञेयः ॥ १० ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यत्) यौ (इन्द्राग्नी) (परमस्याम्) (पृथिव्याम्) (मध्यमस्याम्) (अवमस्याम्) (उत) (स्थः) पूर्ववदर्थः (अतः०) इत्यपि पूर्ववत् ॥ १० ॥
भावार्थभाषाः - द्विविधाविन्द्राग्नी स्तः। एकावुत्तमगुणकर्मस्वभावेषु स्थितौ पवित्रभूमौ वा तावुत्तमौ यावपवित्रगुणकर्मस्वभावेष्वशुद्धभूम्यादिपदार्थेषु वा तिष्ठतस्ताववरौ इमौ द्विधा पवनाग्नी उपरिष्टादधोऽधस्तादुपर्य्यागच्छतस्तस्मादुभाभ्यां मन्त्राभ्यामवमपरमशब्दाभ्यां पूर्वप्रयुक्ताभ्यां विज्ञापितोऽयमर्थ इति वेद्यम् ॥ १० ॥
बार पढ़ा गया

माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - इंद्र व अग्नी दोन प्रकारचे आहेत. एक ते जे उत्तम गुण, कर्म, स्वभावात स्थिर आहेत किंवा पवित्र भूमीत स्थिर आहेत ते उत्तम व जे अपवित्र गुण, कर्म, स्वभावात किंवा अपवित्र भूमी इत्यादी पदार्थात स्थिर होतात ते निकृष्ट वायू व अग्नी सर्वत्र चलायमान असतात त्यामुळे दोन्ही मंत्रातून (अवम) व (परम) शब्द प्रथम प्रयोगात आणलेले आहेत. त्यांच्याकडून दोन प्रकारचे (इंद्र) व (अग्नी) अर्थ समजाविले आहेत, हे जाणले पाहिजेत. ॥ १० ॥